उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक, श्री सुलखान सिंह ने स्वतंत्र भारत के शासन और वर्तमान हालात पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने भारत के पहले और अंतिम भारतीय गवर्नर जनरल, श्री सी. राजगोपालाचारी द्वारा वर्ष 1922 में वेल्लोर जेल से लिखी गई “जेल डायरी” का उल्लेख करते हुए आज के भारत की तुलना उस ऐतिहासिक चेतावनी से की है।
सी. राजगोपालाचारी की भविष्यवाणी
राजगोपालाचारी जी ने 1922 में लिखा था:
“हम सबको यह जानना चाहिए कि स्वराज तुरंत या, मेरा विचार है, लंबे समय तक भी, न तो बेहतर शासन होगा और न ही लोगों के लिए अधिक सुख। चुनाव और उनकी भ्रष्टाचारपूर्ण प्रवृत्तियाँ, अन्याय, धन की शक्ति और अत्याचार तथा प्रशासन की अक्षमता – स्वतंत्रता मिलते ही जीवन को नरक बना देंगे। लोग अफसोस के साथ पुराने शासन को याद करेंगे, जहाँ अपेक्षाकृत न्याय था, प्रशासन कुशल था, शांति थी और कमोबेश ईमानदारी भी थी। एकमात्र लाभ यह होगा कि एक जाति के रूप में हम अपमान और अधीनता से बच जाएंगे...”
आज का यथार्थ – सुलखान सिंह की टिप्पणी
श्री सुलखान सिंह का कहना है:
“आज जब मैं सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, उद्योगपतियों का मनमाना वर्चस्व, और विशेषकर पुलिस व अन्य अधिकारियों की अमर्यादित भाषा तथा व्यवहार देखता हूँ, तो लगता है कि राजगोपालाचारी जी की यह आशंका आज वास्तविकता बन चुकी है। जिस ‘अपमान और अधीनता’ से मुक्ति पाने का सपना स्वतंत्रता संग्राम में देखा गया था, वह सपना भी आज टूटता हुआ प्रतीत होता है।”
वह कहते हैं कि उन्होंने पहले भी कई बार यह बात दोहराई है, और आज भी उनका यह दृढ़ मत है कि:
“लोकतंत्र की पहली और न्यूनतम आवश्यकता है कि सरकार और सरकारी संस्थाएं, न्यायालय सहित, नागरिकों को सम्मान दें।”
लेकिन आज स्थिति यह है कि सरकारी तंत्र स्वयं ही आम नागरिकों को अपमानित और उत्पीड़ित कर रहा है। यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक स्थिति है।
एक अंतर्मन की पुकार
अपने विचारों का समापन करते हुए श्री सुलखान सिंह कहते हैं:
“परमात्मा, भारत गणतंत्र के लोकतंत्र और देश के भोलेभाले नागरिकों को इस अपमान और उत्पीड़न से बचाएं। अब यही एक अंतिम उम्मीद बची है। God save India.”
विश्लेषण:
सी. राजगोपालाचारी की यह भविष्यवाणी और श्री सुलखान सिंह का यथार्थपरक आकलन हमें यह सोचने को विवश करता है कि क्या हमने स्वतंत्रता के मूल उद्देश्यों और मूल्यों को वास्तव में आत्मसात किया है? क्या आज का लोकतंत्र, आम नागरिक के आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता और न्याय की गारंटी देता है? या हम केवल चुनावों और संस्थागत तंत्रों के भ्रम में उलझे हैं?
यह समय है आत्मचिंतन का – और पुनः मूल्यांकन का, कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।
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