यह दो मामले एक उदाहरण भर हैं। तीन महीने में 14 और हफ्ते भर में इस तरह की दो घटनाएं सामने आ चुकी हैं। सच्चाई यह है बच्चों व किशोरों को माता-पिता या अभिभावक की डांट फटकार और बंदिशें अब नागवार गुजरने लगी हैं। गुस्सा होकर घर छोड़ने के आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे खेलने, होमवर्क न करने, वीडियो गेम खेलने से रोकने पर वे घर छोड़ने में जरा भी देर नहीं लगाते। जानकर बताते हैं कि ऐसे कदम न उठाएं इसके लिए बच्चों के मन की बात सुनने की जरूरत है। अभिभावकों को बच्चों के मन की बात सुननी चाहिए और उनसे मित्रवत व्यवहार करने की आवश्यकता है।
मनोविज्ञान के सेवानिवृत्त प्रवक्ता कृष्ण बिहारी उपाध्याय बताते हैं कि पांच वर्ष की उम्र के बाद बच्चे के व्यवहार और मनो स्थिति में परिवर्तन होने लगता है। इस दौरान स्कूल में उनका नए दोस्तों से मेलजोल बढ़ता है। उनके व्यवहार और गतिविधियों में भी परिवर्तन दिखता है। इन पर अभिभावकों की रोकटोक उन्हें बंदिश सी लगने लगती हैं। बार-बार टोकने से बच्चे चिढ़ चिढ़े होने लगते हैं। ऐसे में जरूरी है कि उनसे दूरी बनाने के बजाए मेलजोल बढ़ाएं। उनके मन में हो रही हलचल भांप कर उसी अनुरूप व्यवहार करने की आवश्यकता है।
शहर के एक व्यवसायी के 13 वर्षीय बेटे को उसके चाचा अक्सर टोकते रहते थे। खेल, पढ़ाई, मित्रों संग घूमने, कपड़े खरीदने जैसी बातों पर वह टीका-टिप्पणी करते थे। यह बात बच्चे को नागवार लगता था, मगर माता-पिता से संकोच वश नहीं बोल पाता था। एक प्रदर्शनी से घूमकर आने के बाद चाचा ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया। इसके बाद वह चुपचाप घर से निकल गया। दो दिन ढूंढने के बाद लखनऊ में मिला।
बस्ती एसपी आशीष श्रीवास्तव का कहना है।
बच्चों, किशोरों के नाराज होकर घर छोड़कर भागने की घटनाएं चिंता का विषय है। इसमें पुलिस से ज्यादा परिवार वालों की जिम्मेदारी होती है। सबसे जरूरी है संवादहीनता की स्थिति नहीं बनने देना चाहिए। बच्चे से परस्पर संवाद बनाए रखने से इस तरह की परिस्थितियों से बचा जा सकता है।
रुधौली बस्ती से अजय पांडे की रिपोर्ट
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