इस्लाम धर्म के पांच मुख्य स्तंभों में रोज़ा(उपवास) तीसरे स्थान पर आता है।जो अरबी महीने के रमजान में पड़ता है।इस पूरे एक महीने सुबह सूर्योदय पूर्व से लेकर सूर्यास्त तक अन्ना जल का त्याग कर उपवास रखना रोज़ा कहलाता है।
इस्लाम धर्म में रोज़ा सभी बालिग औरत मर्द पर फ़र्ज़(अनिवार्य)है।कुछ विशेष परिस्थिति में इसमें छूट है जैसे बीमार को,बच्चे को,दूध पिलाने वाली माएं,वृद्धजन,और सफर में चलने वालों यात्रियों को।
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मोहम्मद साहब(स0अ0) ने फरमाया है कि रोज़ा सिर्फ़ भूखा प्यासा रहने का नाम नहीं बल्कि रोज़ा एक जिहाद है।यहां जिहाद का मतलब संघर्ष से है।रोज़ा रखने का मक़सद किसी को भूखा रखना नहीं है बल्कि उसे ये अहसास दिलाना है कि दुनिया के कितने ऐसे लोग है जिन्हें दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है।रोज़ा सब्र का नाम है।ये एक महीना उस ट्रेनिंग की तरह है जिसमें रोजेदार खुद को इस काबिल बनाता है कि बाकी के ग्यारह महीने उसपर अमल कर सके।ईश्वर को राजी करने का नाम है रोज़ा।इस महीने में किए गए हर नेक कार्य पर सत्तर गुना पुण्य मिलता है।इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए रोज़ा बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है।
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