उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने अपना रूख स्पष्ट कर दिया है। उच्च न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के बिना ही निकाय चुनाव कराने का आदेश दे दिया है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो न्यायालय के इस आदेश के बाद पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीट सामान्य मानी जाएगी।
न्यायालय के इस निर्णय को सरकार के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। इस मामले में 24 दिसंबर को बहस पूरी हो गई थी। कोर्ट ने निकाय चुनावों से संबंधित लगभग आठ दर्जन याचिकाओं पर सुनवाई के बाद 27 दिसंबर तक निर्णय सुरक्षित रख लिया था।
उच्च न्यायालय ने 5 दिसंबर को जारी ड्राफ्ट नोटिफिकेशन को भी खारिज कर दिया है। पीठ ने कहा कि अगर आरक्षण तय करना है, तो ट्रिपल टेस्ट के बिना कोई आरक्षण तय नहीं होगा। सरकार को चुनाव जल्दी कराने चाहिए। उपरोक्त आदेश न्यायमूर्ति देवेंद्र कुमार उपाध्याय और सौरभ लवानिया की खंडपीठ ने दिया । रायबरेली निवासी सामाजिक कार्यकर्ता वैभव पांडेय की जनहित याचिका लगाई थी
न्यायालय के इस निर्णय के बाद अगर सरकार को पिछड़ा वर्ग के आरक्षण लागू करना है, तो आयोग गठित करना होगा। यह आयोग पिछड़ा वर्ग की स्थिति पर अपनी रिपोर्ट देगा। इसके आधार पर आरक्षण लागू होगा। आरक्षण देने के लिए स्तर पर मानक रखे जाते हैं। इसे ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला कहा गया है।
अब इस टेस्ट में देखना होगा कि राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग की आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति कैसी है? उनको आरक्षण देने की जरूरत है या नहीं? उनको आरक्षण दिया जा सकता है या नहीं?
कोर्ट में कहा गया कि ये एक राजनीतिक आरक्षण UP सरकार की ओर से अपर महाधिवक्ता विनोद कुमार शाही और मुख्य स्थाई अधिवक्ता अभिनव नारायन त्रिवेदी ने सरकार का पक्ष रखा था। दलील दी गई कि निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण एक प्रकार का राजनीतिक आरक्षण है।
पहले मामले की सुनवाई के समय राज्य सरकार का कहना था कि मांगे गए सारे जवाब प्रति शपथपत्र में दाखिल कर दिए गए हैं। इस पर याचियों के वकीलों ने आपत्ति करते हुए सरकार से विस्तृत जवाब की गुजारिश की, जिसे कोर्ट ने नहीं माना।
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